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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

कांग्रेस और औपनिवेशिक संघर्ष

कांग्रेस और औपनिवेशिक संघर्ष
एशिया में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले देशों के नेताओं को इस तथ्य का ज्ञान था कि उनका संघर्ष सभी उपनिवेशी देशों में आम संघर्ष का एक हिस्सा है। इसलिए उन्होंने एक दूसरे का समर्थन किया। सनयात सेन ने एक बार चीन में क्रांतिकारी संघर्ष के लिए एकत्र किए गए धन को फिलीपीन्स के क्रांतिकारियों को देने और चीन में विद्रोह कराने की योजना को स्थगित करने का प्रस्ताव किया था ताकि फिलीपीन्स की आजादी को और तेज किया जा सके। अन्य देशों में संघर्षशील उपनिवेशी जनता के प्रति एकता व्यक्त करने के मामले में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का रवैया अन्य देशों से कहीं ज्यादा स्पष्ट था। समान संघर्ष और एकता की यह भावना दादा भाई नौरोजी, बनर्जी, गोखले, तिलक, लाजपतराय और उस समय के अन्य नेताओं ने महसूस की थी। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में यह विचार हमारे विश्वास और नीति का अंग बन गया।
उपनिवेशवाद का कांग्रेस द्वारा विरोध
जैसे जैसे दिन गुजरते गए कांग्रेस औपनिवेशिक दासता वाले देशों की आजादी के संघर्ष को समर्थन देने के मामले में और ज्यादा मुखर होती गयी तथा साम्राज्यवादी और अन्य औपनिवेशिक देशों की और कड़े शब्दों में निन्दा करने लगी। राष्ट्रीय संघर्ष के उस अनूठे कदम को याद करने से किसी को भी गर्व की अनुभूति होगी जब ब्रिटिश शासन द्वारा बर्मा को भारत में मिलाने की कार्रवाई को कांग्रेस ने विस्तारवादी कार्रवाई कहा था और आजादी के लिए बर्मा के लोगों का समर्थन किया था। १९२१ में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास करके बर्मा के लोगों को अपनी आजादी के संघर्ष के लिये शुभकामनाएं दी थीं और घोषणा की थी कि कांग्रेस भारत के आजाद होने पर बर्मा को भारत से अलग रहने का समर्थन करेगी। गांधी जी ने यह कह कर भारत की स्थिति स्पष्ट कर दी कि बर्मा कभी भी भारत का अंग नहीं रहा - उसे कभी भी भारत का अंग नहीं बनाना चाहिए। बर्मा को हड़पने के कदम का प्रश्न ही नहीं लिया जा सकता। इसके काफी पहले राष्ट्रवादी नेतृत्व ने भारत की सीमाओं के विस्तार की ब्रिटिश नीति की निन्दा की थी और बड़ी संख्या में सेना और सैनिक खर्च से भारत को जकड़ने की कड़ी आलोचना की थी। १८७८-८० के दिनों में ही राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन द्वारा अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने का विरोध किया था और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसे एक ऐसा अन्याय बताया था जिससे इतिहास के पन्ने काले हुए हैं। १८९७ में कांग्रेस के अध्यक्ष जी. शंकरन नायर ने भारत के लिए शांतिपूर्ण नीति पर चलने की वकालत की ताकि भारत की सीमाओं के आसपास शांति का वातावरण रहे और भारत अपना आंतरिक विकास कर सके।
राष्ट्रवाद का समर्थन
इसी तरह राष्ट्रवादी नेताओं ने सैनिक अभियानों और साम्राज्यवादी विस्तार और एशिया साम्राज्यवादी युद्धों में भारतीय सैनिकों और साधनों के दुरुपयोग का भी विरोध किया। उन्होंने यह भी महसूस किया कि यह साम्राज्यवाद अवगुण है। १८८२ में ब्रिटेन 'कथित' भारत सरकार की साझेदारी के रूप में राष्ट्रवादी आन्दोलन के दमन के लिए मिस्र में सैना भेजी। राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे अनैतिक और आक्रमक कार्रवाई और कहा कि युद्ध का मतलब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों का पोषण करना है। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने आयरलैन्ड के राष्ट्रवादियों और मिस्र के राष्ट्रवादियों को संघर्ष से अपना समर्थन व्यक्तः किया। एक अन्य उदाहरण चीन के संघर्ष का है। चीन ब्रिटेन के प्रभुत्व वाली ताकतों का शिकार हो गया और प्रथम विश्व युद्ध के बाद जापानी साम्राज्य की मुट्ठी में चला गया। साथ ही यह देश युद्ध लोलुपों द्वारा विभिन्न सामा्रज्यवादी ताकतों की साठगांठ से शापग्रस्त हो कर युद्ध का अड्डा बन गया। चीन एशिया से एक ऐसा बीमार देश बन गया, जहां विदेशी ताकतों, विदेशी व्यावसायिक हितों, प्रतिक्रियावाद की आंतरिक ताकतों सामंती और सैनिक समयों को खुल कर खेलने का मौका मिल रहा रहा था। यहां की जनता दमन के नीचे घुट रही थी। सनसयात सेन के नेतृत्व में एक पुनर्गठित राष्ट्रवादी पार्टी ने साम्राज्यवाद और देश के भीतर के युद्ध लोलुपों के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया और चीन के एकीकरण और उसकी प्रभुसत्ता और प्रादेशिक अखंडता के लिए कैन्टन से १९२५ में एक अभियान शुरू किया। कांग्रेस ने इस राष्ट्रवादी संघर्ष को समर्थन दिया और चीन में भारतीय सेना के इस्तेमाल की कड़ी निन्दा की। गांधी जी ने चीन के छात्रों पर गोली चलाने और उनकी हत्या करने के लिए हत्या करने के लिए भारतीय सेना के इस्तेमाल की निन्दा की। उनकी यह निन्दा इस सचाई को उजागर करने के लिए थी कि भारत को केवल उसके खुद के शोषण के लिए गुलाम बना कर नहीं रखा गया है बल्कि चीन के महान और प्राचीन लोगों के शोषण में ग्रेट ब्रिटेन को सहयोग देने के लिए भी गुलाम रखा गया।"

खिलाफत आंदोलन और गांधीजी
भारत के मुसलमान उद्वेलित हो उठे। मुस्लिम लीग के नेता डाक्टर अंसारी ने मुस्लिम राज्यों की अखंडता और आजादी की मांग उठाई और कहा कि इस्लाम के पवित्र स्थानों सहित जजीरात-उस अरब को खलीफा को सौंप दिया जाए। १९१८ में कांग्रेस की स्वागत समिति के अध्यक्ष हकीम अजमल खान ने इसी तरह के विचार व्यक्त किए। गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को अपना पूर्ण समर्थन दिया और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन शुरू करने का फैसला किया। 'यंग इंडिया' पत्रिका में एक लेख में उन्होंने लिखा "मैं अपने साथ भारतीयों के संकट और दुख में भागीदार बनने के लिए बाध्य हूं। अगर मैं मुसलमानों को अपना भाई समझता और उनके हित को न्यायोचित मानता हूं तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ उनकी मदद करूं।" गांधीजी ने दुनिया भर के मुसलमानों और खासतौर से भारत के मुसलमानों की भावनाओं की उपेक्षा करने के लिए मोन्टेगू और ब्रिटिश शासन की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा, "मुझे यह जानकर आश्चर्य और निराशा हुई है कि साम्राज्य के वर्तमान प्रतिनिधि बेईमान और सिद्धांतहीन हैं। उन्हें भारत के लोगों की इच्छाओं के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं और वे भारत के सम्मान को कोई महत्व नहीं देते। मैं दुष्टों द्वारा संचालित सरकार के प्रति कोई प्रेमभाव नहीं दिखा सकता।" आजादी और मुक्ति के लिए कोई भी ऐसा आन्दोलन नहीं था जिसे कांग्रेस का समर्थन न मिला हो। सामा्रज्यवाद और फासिस्टवाद (अधिनायकवाद) की निन्दा करने में जवाहर लाल नेहरू सबसे आगे थे। स्पेन से इथियोपिया तक उन्होंने दबे हुए राष्ट्रों के प्रति कांग्रेस का समर्थन व्यक्त किया। जैसा कि १९३६ में उन्होंने कहा - "हमारे संघर्ष की सीमाएं, अपने देश तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि चीन और स्पेन तक फैली हैं।" वास्तव में जवाहरलाल नेहरू व्यक्तिगत और शारीरिक रूप से स्पेन में फासिस्टवाद के विरुद्ध संघर्ष में भाग लेना चाहते थे लेकिन भारत में आजादी के लिए संघर्ष की मांग के कारण ऐसा नहीं कर सके।
अधिनायकवाद का विरोध
१९३६ में मुसोलिनी के नेतृत्व में फासिस्ट इटली ने इथियोपिया (तब का अबीसीनिया) के विरुद्ध जब हमला किया तो कांग्रेस ने इथियोपिया की जनता के प्रति समर्थन किया। कांग्रेस ने इथियोपिया दिवस मनाया और साम्राज्यवाद और फासिस्टवाद के विरुद्ध जनमत जागृति किया। जवाहरलाल नेहरू यूरोप गए थे और लौटते समय जब उनका विमान रोम में उतरा तो मुसोलिनी ने उनसे भेंट करने की इच्छा व्यक्त की लेकिन जवाहरलाल नेहरू ऐसे तानाशाह से बात नहीं करना चाहते थे जिसने इथियोपिया की जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था। इसी तरह चीन पर जापान के आक्रमण पर कांग्रेस ने रोष व्यक्त किया और ठोस कदमों के साथ चीन की जनता का समर्थन किया। कांग्रेस ने देश भर में जापानी माल के बहिष्कार का आयोजन किया और चीनी जनता के संघर्ष के समर्थन में जापानी साम्राज्यवादियों के खिलाफ सभाएं और प्रदर्शन किए। बाद में कांग्रेस ने अपने सांकेतिक समर्थन के रूप में एक चिकित्सा दल चीन भेजा। इस प्रकार कांग्रेस औपनिवेशिक दासता की त्रासदी भोग रहे देशों की जनता के संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी रही।
उपनिवेशवाद-विरोधी (प्रवक्ता श्री नेहरू )
जवाहरलाल नेहरू ने इस जागृति की प्रक्रिया और विदेशी दासता की जकड़े लोगों के प्रति एक की भावना को और तेज किया। वास्तव में जवाहरलाल औपनिवेशिक लोगों के संघर्ष की चेतना बन गए। यह एक सच्चाई है कि जवाहरलाल नेहरू ने फरवरी १९२७ में ब्रसेल्स में औपनिवेशिक दमन और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से भाग लिया था। इसके बाद ही कांग्रेस साम्राज्यवाद के विरुद्ध और राष्ट्रीय आजादी के लिए गठित लीग का सह सदस्य बन गयी। जवाहरलाल नेहरू, अल्बर्ट आइन्सटाइना मदाम सनपात सेन, रोमैं रोलां तथा विश्व के अन्य नेताओं के साथ ब्रसेल्स सम्मेलन के अध्यक्षों में से अध्यक्ष चुने गए और बाद में लीग की कार्यकारिणी के सदस्य बने। जवाहलाल नेहरू ने अपने भाषण में साम्राज्यवाद को पूंजीवाद का विकसित रूप बताया और उपनिवेश की दासता में जकड़े देशों के लिए समान संघर्ष और एक दूसरे को मदद देने की आवश्यकता पर बल दिया। खिलाफ आन्दोलन नाम से विख्यात तुर्की के मुसलमानों के संघर्ष समर्थन में १९२० में गांधी जी ने जो आन्दोलन चलाया उसे कौन भुला सकता है। यह वह समय भी था जब कांग्रेस राजनीतिक लोगों के सम्मेलन की वार्षिक जमात का चोला उतार कर न सिर्फ भारतीय मांगों का झरोखा बन गयी बल्कि राष्ट्रीय नीतियों को निश्चित करने और उसको लागू करने का एक संगठन बनी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का जनसंख्या के आधार पर पुनर्गठन किया गया। भारतीय आधार पर प्रांतीय कमेटियां बनाई गयीं और कांग्रेस कार्यसमिति का गठन हुआ।

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