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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

रीछ फिर धोखा खा गया

रीछ फिर धोखा खा गया
भारी कर्ज़ के बोज के नीचे दबा एक दरिद्र आदमे, लेनदेन के रोज़ रोज़ के गालियों और धक्‍के मुक्कों से तंग आ कर जंगल मे भाग गया। वह जंगल मे एक पेड के नीचे लेटा हुआ, अपनी इस नरकीय ज़िंदगी के बारे मे सोचते हुए अपने आप मे इतना खोया हुआ था कि उसे ध्यान ही नही रहा कि कब एक रीछ उसके सिर पर पहुँच गया। अचानक सिर पर आए खतरे को भांप कर उस ने तुरन्त अपनी सांस रोक ली। जब रीछ ने देखा कि वह आदमी सांस नही ली रहा है, तो उसने अपने नाखूनो व दातों से उसके शरीर को बुरी तरह नोचना शुरु कर दिया किया क्योकि उस रीछ ने सुन रखा था कि किसी जमाने मे एक आदमी ने सांस रोक लेने से कोई रीछ धोखा खा गया था। बुरी तरह चमडी उतर जाने के बाद भी वह ट्स से मस नही हुआ तो रीछ, उसे वास्तव मे मरा हुआ समझ कर वहां से चला गया । कुछ दुर जाने के बाद न जाने रीछ के मन मे क्या आया, उस ने पिछे मुड कर देखा तो वह हैरान रह गया। वह आदमी उठ कर पेड पर चढ रहा था ।
रीछ तुरन्त पेड के पास लौट आया और पेड पर चढे उस आदमी से वोला, हे मानव! जरा सा कांटा लगने पर, हाड मांस का बना हर प्राणी तिलमिला उठता है। मैने तो तेरी सारी चमडी उधेड दी पर तुझे दर्द क्यों नही हुआ?
हे जंगल मे निवास करने वाले रीछ, तू क्या जाने? मैने इस सभ्य समाज मे, गरीबी व भुखमरी का जो दर्द सहन किया है, साहूकारो की जो प्रताडना सहन की है, उसके मुकाबले तो यह दर्द कुछ भी नही । वह अपने धावो की ओर इशारा करते हुए बोला। जिसमे से उस समय टप टप लहू बह रहा था ।

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