मंगलवार, 1 जून 2010
लक्ष्मीनंदन बोरा
रविवार, 24 जनवरी 2010
भगवद गीता भीष्मपर्व का एक अंश है
भगवद गीता महाभारत महाकाव्य के भीष्म पर्व का एक अंश है जिसमें कुल सात सौ श्लोक हैं. महाभारत का रचना काल दो सौ से लेकर पाँच सौ शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है. और इसके लेखक का पता न होने के कारण इसके संकलन करता व्यास को ही इसका लेखक स्वीकार किया जाता है. किंतु एक बात निश्चित है कि इसकी रचना प्रारंभिक उपनिषदों के बाद की. है. कुछ विद्वानों ने उपनिषदों की परम्परा में ही गीता को रखकर इसे गीतोपनिषद और योगोपनिषद भी कहा है. निखिलानंद स्वामी इसे मोक्षशास्त्र मानते हैं.जिनारजदास और राधाकृष्णन जैसे विद्वानों के विचार में महाभारत के भीष्म पर्व में भगवद गीता को बहुत बाद में जोड़ा गया है. किंतु इस मत को विशेष मान्यता नहीं है।
महाभारत की कथा दो सगे भाइयों पांडु और धृतराष्ट्र के राजघरानों में जन्मे चचेरे भाइयों पांडवों और कौरवों के मध्य के कलह की कथा है. धृतराष्ट्र के चक्षुविहीन होने के कारण पांडु को पैतृक साम्राज्य का स्वामी स्वीकार किया गया किंतु शीघ्र ही पांडु का निधन हो जाने से पांडव और कौरव दोनों ही धृतराष्ट्र की देख-रेख में पले. एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद चारित्रिक दृष्टि से पांडवों और कौरवों की प्रकृति में बहुत बड़ा अन्तर था. भाइयों में बड़े होने के कारण जब युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का समय आया, दुर्योधन के षडयंत्र से पांडवों को वनवास भुगतना पड़ा. जब वे वापस लौटे उस समय तक दुर्योधन अपना राज्य मज़बूत कर चुका था. उसने पांडवों को उनका अधिकार देने से इनकार कर दिया. श्री कृष्ण जो पांडवों के मित्र और कौरवों के शुभचिंतक थे, उनके द्वारा किए गए समझौते के सारे प्रयास विफल हो गए और युद्ध को टालना असंभव हो गया. दोनों ही पक्ष युद्ध में कृष्ण को साथ रखना चाहते थे. कृष्ण ने पेशकश की कि वे एक को अपनी विशाल सेना दे सकते हैं और दूसरे के लिए सार्थवाहक और परामर्श दाता होना पसंद करेंगे. दुर्योधन जिसे बाह्य शक्तियों पर भरोसा था उसने विशाल सेना चुनी और अर्जुन के लिए कृष्ण सार्थवाहक और परामर्शदाता बने. यहाँ इस गूढ़ रहस्य को भी उदघाटित कर दिया गया कि बहुसंख्यक होना शक्ति-संपन्न होने का परिचायक नहीं है. सही मार्गदर्शन और आतंरिक ऊर्जा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भगवद गीता युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का दर्शन है जिसकी आधारशिला दो नैतिक तर्कों के टकराव पर रखी गई है।
अर्जुन की नैतिकता उन्हें युद्ध के परिणामों की भयावहता और अपने ही सम्बन्धियों के मारे जाने की कल्पना के नतीजे में युद्ध से रोक रही थी. कृष्ण की नैतिक सोच अर्जुन के विपरीत, परिणाम की चिंता किये बिना कर्म-क्षेत्र में कर्तव्य पालन पर विशेष बल दे रही थी. शरीर मरते हैं, आत्मा नहीं मरती. के दर्शन ने अर्जुन को हथियार उठाने पर विवश कर दिया।
परामर्शदाता और मार्गदर्शक के रूप में कृष्ण ने सत्य को जिस प्रकार परिभाषित किया उसके मुख्य बिन्दु थे सर्व-शक्ति-संपन्न नियंता, जीव की वास्तविकता, प्रकृति का महत्त्व, कर्म की भूमिका और काल की पृष्ठभूमि. कृष्ण ने अर्जुन को जिस धर्म की शिक्षा दी उसे सार्वभौमिक सौहार्द के रूप में स्वीकार किया गया है. अर्जुन की समझ प्रकृति के मूल रहस्य को नहीं समझ पा रही थी. शरीर तो विनाशशील है. आत्मा ही अजर और अमर है.फलस्वरूप कृष्ण ने अर्जुन को योग की शिक्षा दी.भगवद गीता में महाभारत के युद्ध को 'धर्म-युद्ध' कहा गया है जिसका उद्देश्य न्याय स्थापित करना है. स्वामी विवेकानंद ने इस युद्ध को एक रूपक के रूप में व्याख्यायित किया है.उनकी दृष्टि में यह एक लगातार युद्ध है जो हमारे भीतर अच्छाइयों और बुराइयों के बीच चलता रहता है।
भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है. फ़ारसी भाषा में अबुल्फैज़ फैजी ने गीता का अदभुत काव्यानुवाद किया है. उर्दू में कृष्ण मोहन का काव्यानुवाद भी पठनीय है. अंगेजी में क्रिस्टोफर ईशरवुड का अनुवाद मार्मिक है. टी. एस.ईलियट ने गीता के मर्म को अपने ढंग से व्याख्यायित किया.जे. राबर्ट ओपनहीमर जिसने संहारात्मक हथियार बनाया था द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर 16 जुलाई 1945 को कृष्ण के शब्द दुहराए थे- मैं ही मृत्यु हूँ, सम्पूर्ण जगत का संहारक. ओपनहीमर के पास अणु बम बनाने के पीछे यही तर्क था और वह अपने उद्देश्य को सार्थक समझता था. यद्यपि बाद में उसने कहा था- "जब आप किसी चीज़ को तकनीकी दृष्टि से मधुर देखते हैं तो आप उसके निर्माण में रुकते नहीं, किंतु जब आपको सफलता प्राप्त हो जाती है तो आपके समक्ष अनेक तर्क-वितर्क उठ खड़े होते हैं." इस भावना ने अर्जुन की नैतिक सोच को फिर से जीवित कर दिया है. मानव की हत्या करके सत्य की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मैं क्यों अपने निजी सुख के लिए साम्राज्य, और विजय चाहता हूँ?
आज भारत की जनता भगवद गीता पर गर्व करती है और हमने अपने राष्ट्रीय ध्वज में बीचोबीच कृष्ण के सार्थ का पहिया अथवा सुदर्शन-चक्र प्रतीक स्वरुप बना रखा है जिसकी प्रत्येक रेखा से जन गण मन का स्वर फूटता रहता है।
भारतीय संविधान सभा
भारतीय संविधान सभा की प्रथम बैठक ९ दिसम्बर १९४६ को नई दिल्ली में कौंसिल हाऊस के कांस्टीच्यूशनल हाल में हुई। स्थायी अध्यक्ष को चुनाव होने तक संविधान सभा के सब से वृद्ध सदस्य बिहार के डा० सचिचदानन्द सिन्हा अंतरिम अध्यक्ष बनाए गए।
अमेरिका, चीन तथा आस्ट्रेलिया की सरकारों से बधाई और शुभकामना संदेश प्राप्त हुए। अमेरिकी विदेश मंत्री श्री अचेसन ने अपने संदेश में कहा- "शांति और स्थिरता लाने तथा मानवता के सांस्कृतिक उत्थान में भारत का महान योगदान रहा है और समूचे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी लोग आपके विचार-विमर्श में गहरी रूचि लेंगे।"
डाक्टर सिन्हा ने संविधान सभा के सामने 'अमरत्व के लिए संविधान' का आदर्श रखा।
११ दिसम्बर, १९४६ को डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष चुने गए। सदन के सभी पक्षों के सदस्यों ने नए अध्यक्ष के व्यक्तित्व की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
अपने भाषण में अध्यक्ष ने कहा- "मैं जानता हूं कि यह सभा कुछ जन्मजात सीमाओं के साथ अस्तित्व में आई है। इसकी कार्रवाई चलाने और निर्णय करते हुए हमें इन मर्यादाओं का पालन करना होगा। मैं यह भी जानता हूं कि इन सीमाओं के बावजूद यह सभा पूरी तरह स्वतंत्र और आत्म-निर्णय में सक्षम है जिसकी कार्रवाई में कोई बाहरी शक्ति या सत्ता संशोधन-परिवर्तन नहीं कर सकती।
उद्देश्य की घोषणा-
१३ दिसम्बर, १९४६ को पं० जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें संविधान के लक्ष्य का निरूपण किया गया। यह था स्वतंत्र-प्रभुसत्तसंपन्न लोकतंत्र जिसे सारी शक्ति और अधिकार जनता से प्राप्त हो। २२, जनवरी १९४७ को यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया।
पारित होने के बाद इस प्रस्ताव को स्वतंत्रता के घोषणापत्र का नाम दिया गया और ५० सदस्यों की एक सलाहकार समिति गठित की गई। सभा के अध्यक्ष को २२ सदस्य और मनोनीत करने का अधिकार दिया गया। सलाहकार समिति को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों अल्पसंख्यकों के संरक्षण और पिछड़े तथा आदिवासी इलाकों के प्रशासन के बारे में संविधान सभा को परामर्श देना था।
तीसरा अधिवेशन -
ढाई महीने की गड़बड़ और तनाव की स्थिति के बाद २८ अप्रैल, १९४७ को सभा की तीसरी बैठक हुई।
इस बार बड़ौदा, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, पटियाला, बीकानेर, कोचीन तथा रीवां के प्रधानमंत्री और चुने हुए प्रतिनिधि भी उपस्थिति थे।
अध्यक्ष के स्वागत-भाषण का उत्तर देते हुए दीवानों और प्रतिनिधियों ने देश के एकीकरण के प्रति उत्साह और प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि किसी भी रियासत के लिए अलग-थलग रहना कठिन होगा। सरदार पनिक्कर ने कहा - "हम यहां स्वेच्छा से आए हैं। हम किसी दबाव या धमकी के कारण यहां नहीं आए। जो ऐसा कहता है, वह हमारे विवेक का अपमान करता है।"
इस संक्षिप्त अधिवेशन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि सलाहकार समिति की ओर से सरदार पटेल द्वारा पेश मूलभूत अधिकारों की स्वीकृति थी, रिपोर्ट के कुछ मुद्दों पर जोरदार बहस हुई। यह स्पष्ट किया गया कि हमारे मूलभूत अधिकार कानून द्वारा लागू किए जाएंगे इन्हें न्यायिक संरक्षण प्राप्त होगा तथा ये आयरलैंड के संविधान के अनुरूप होंगे।
'समानता के अधिकार' से धर्म, जाति, संप्रदाय अथवा लिंग के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को समान अधिकारों की गारंटी मिलती है और सरकार इन भेदों के आधार पर किसी असमानता को मान्यता नहीं देगी।
अंततः अस्पृश्यता की कलंकपूर्ण प्रथा समाप्त हो जाएगी और इस आधार पर किसी को हेय मानना अपराध माना जाएगा।
जहां तक सरकार की मान्यता का संबंध है, उपाधियां समाप्त कर दी गईं।
मूलमूल अधिकारों में बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निस्शस्त्र और शांतिपूर्वक एकत्र होने की स्वतंत्रता, संघ और संस्थाएं बनाने की स्वतंत्रता, बिना किसी रुकावट के देश भर में घूमने तथा देश के किसी भी भाग में रहने की स्वतंत्रता की व्यवस्था की गई है।
धार्मिक विश्वास और आचरण की स्वतंत्रता के अंतर्गत सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए किसी भी धर्म का पालन करने, प्रसार और प्रचार करने की सबको समान रूप से स्वतंत्रता है।
सभा का जुलाई अधिवेशन पहले के तीनों अधिवेशनों से काफी भिन्न था। सभी रिसायतों के प्रतिनिधियों के अलावा मुस्लिम लीग के सदस्य भी उसमें शामिल हुए।
संविधान सभा द्वारा गठित सभी समितियों, खासकर संघ संविधान समिति, प्रान्तीय संविधान समिति और सलाहकार समिति ने अप्रैल से जुलाई तक की अवधि में खूब काम किया। अप्रैल का अधिवेशन जब समाप्त हुआ था तो देश शंका की नौका में डोल रहा था और दोराहे पर खड़ा था। यह स्पष्ट नहीं था कि भारत एक रहेगा या पाकिस्तान का निर्माण होगा, परंतु माउंटबेटन की ३ जुलाई की योजना के बाद स्थिति एकदम स्पष्ट हो गई और संविधान सभा पूरे संकल्प और लगन के साथ काम में जुट गई।
३ जून के बाद से देश में गड़बड़ और तनाव के विपरीत संविधान सभा में वातावरण सद्भावपूर्ण बना हुआ था। अध्यक्ष अपनी स्वभावगत गरिमा तथा विनम्रता द्वारा मुस्लिम लीग के सदस्यों की निष्ठा से संबंधित सभी प्रश्नों को अस्वीकार करते रहे। लीगी सदस्यों ने ऐसा आश्वासन दिया भी। किन्तु बाद में उनके नेता चौधरी खलीकुज्जमां ने एकाएक भारतीय डोमीनियन को छोड़कर पाकिस्तान की राह पकड़ ली।
प्रांतीय संविधान समिति के अध्यक्ष की हैसियत से सरदार पटेल ने रिपोर्ट पेश की। सामान्यतः प्रान्तीय विधानमंडल में एक सदन होना था, किन्तु दूसरे सदन की भी व्यवस्था की गई। कार्यपालिका में वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित गवर्नर होगा तथा प्रधानमंत्री और अन्य मंत्री होंगे।
पंडित नेहरू ने संघीय संविधान समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें भारत गणतंत्र स्थापित करने और उसमें ९ गवर्नरों के प्रांत, ५ मुख्य आयुक्तों के प्रांत तथा भारतीय रियासतों की व्यवस्था थी। भारतीय संसद के दो सदन होंगे-राज्य सभा और लोकसभा जो इंग्लैंड के हाउस आफ लार्डस तथा हाउस ऑफ कामन्स के समकक्ष होंगे। भारतीय संघ का प्रमुख राष्ट्रपति होगा, जिसका चुनाव हर पांच वर्ष बाद एक निर्वाचक मंडल द्वारा होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ब्रिटिश पद्धति के अनुरूप होगा। एक उच्चतम न्यायालय होगा, जो केंद्र और राज्यों के मध्य तथा राज्यों के आपसी विवादों को निपटाएगा और मूलभूत अधिकारों की रक्षा करेगा।
२२ जुलाई को देश का नया झण्डा स्वीकार किया गया।
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
भारत पर उद्धरण
भारत पर उद्धरण
विश्व भर के इतिहासकारों, लेखकों, राजनेताओं और अन्य जानी मानी हस्तियों ने भारत की प्रशंसा की है और शेष विश्व को दिए गए योगदान की सराहना की है। जबकि ये टिप्पणियां भारत की महानता का केवल कुछ हिस्सा प्रदर्शित करती हैं, फिर भी इनसे हमें अपनी मातृभूमि पर गर्व का अनुभव होता है।
"हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!"
- एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी)
"भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!"
- मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)
"यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!"
- रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान)
"भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।"
- सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान)
"सभ्यताएं दुनिया के अन्य भागों में उभर कर आई हैं। प्राचीन और आधुनिक समय के दौरान एक जाति से दूसरी जाति तक अनेक अच्छे विचार आगे ले जाए गए हैं. . . परन्तु मार्क, मेरे मित्र, यह हमेशा युद्ध के बिगुल बजाने के साथ और ताल बद्ध सैनिकों के पद ताल से शुरू हुआ है। हर नया विचार रक्त के तालाब में नहाया हुआ होता था . . . विश्व की हर राजनैतिक शक्ति को लाखों लोगों के जीवन का बलिदान देना होता था, जिनसे बड़ी तादाद में अनाथ बच्चे और विधवाओं के आंसू दिखाई देते थे। यह अन्य अनेक राष्ट्रों ने सीखा, किन्तु भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!"
- स्वामी विवेकानन्द (भारतीय दार्शनिक)
"यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।"
- मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)
"भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।"
- हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)
"दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।"
- किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)
रीछ फिर धोखा खा गया
भारी कर्ज़ के बोज के नीचे दबा एक दरिद्र आदमे, लेनदेन के रोज़ रोज़ के गालियों और धक्के मुक्कों से तंग आ कर जंगल मे भाग गया। वह जंगल मे एक पेड के नीचे लेटा हुआ, अपनी इस नरकीय ज़िंदगी के बारे मे सोचते हुए अपने आप मे इतना खोया हुआ था कि उसे ध्यान ही नही रहा कि कब एक रीछ उसके सिर पर पहुँच गया। अचानक सिर पर आए खतरे को भांप कर उस ने तुरन्त अपनी सांस रोक ली। जब रीछ ने देखा कि वह आदमी सांस नही ली रहा है, तो उसने अपने नाखूनो व दातों से उसके शरीर को बुरी तरह नोचना शुरु कर दिया किया क्योकि उस रीछ ने सुन रखा था कि किसी जमाने मे एक आदमी ने सांस रोक लेने से कोई रीछ धोखा खा गया था। बुरी तरह चमडी उतर जाने के बाद भी वह ट्स से मस नही हुआ तो रीछ, उसे वास्तव मे मरा हुआ समझ कर वहां से चला गया । कुछ दुर जाने के बाद न जाने रीछ के मन मे क्या आया, उस ने पिछे मुड कर देखा तो वह हैरान रह गया। वह आदमी उठ कर पेड पर चढ रहा था ।
रीछ तुरन्त पेड के पास लौट आया और पेड पर चढे उस आदमी से वोला, हे मानव! जरा सा कांटा लगने पर, हाड मांस का बना हर प्राणी तिलमिला उठता है। मैने तो तेरी सारी चमडी उधेड दी पर तुझे दर्द क्यों नही हुआ?
हे जंगल मे निवास करने वाले रीछ, तू क्या जाने? मैने इस सभ्य समाज मे, गरीबी व भुखमरी का जो दर्द सहन किया है, साहूकारो की जो प्रताडना सहन की है, उसके मुकाबले तो यह दर्द कुछ भी नही । वह अपने धावो की ओर इशारा करते हुए बोला। जिसमे से उस समय टप टप लहू बह रहा था ।
कुछ पुस्तकें और उनके लेखक
1. Confessions of a Swadesi Reformer : Yashwant Sinha2. Can India Grow without Bharat : Shankar Acharya 3. Conversations with Arundhati Roy : The Shape of the Beast - Arunshati Roy4 From Servants to MAsters : S.L. Rao5. From My Jail : Tasleema Nasreen
6. शेन वार्न्स सेंचुरी - माई टॉप १०० टेस्ट क्रिकेटर्स : शेन वॉर्न 7. बैंकर टू द पुअर : मोहम्मद युनुस 8. Billions of Entrepreneurs : तरुण खन्ना 9. बहन जी - ए पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ़ मायावती : अजय बोस 10. कन्फ़ैशन्स ऑफ़ ए स्वदेशी रेफोर्मेर : यशवंत सिन्हा
11. नो लिमिट्स : द विल टू सक्सीड : - माइकल फ्लेप्स12. द टेल्स ऑफ़ बीडल द बार्ड : जे.के.रोलिंग 13. Curfewed Night : बशर्रत पीर 14. इमेजिनिंग इंडिया : आइडियाज फॉर द न्यू सेंचुरी : - नंदन निलेकानी15. बराक ओबामा, द न्यू फेस ऑफ़ अमरीकन पॉलिटिक्स : - मार्टिन डुपुइस, कीथ बोकेलमान16. Termites in the Trading System - How Preferential Agreements Under mine Free Trade: जगदीश भगवती 17. ट्रू कलर्स : एडम गिलक्रिस्ट18. सस्टेनिंग इंडियास ग्रोथ मिरैकल : जगदीश एन. भगवती19. द फॅमिली एंड द नेशन : डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम व आचार्य महाप्रज्ञ20. स्पीकिंग फॉर माई लाइफ : चेरी ब्लेयर
21. माई चायना डायरी : - के. नटवर सिंह 22. द स्कोर ऑफ़ माई लाइफ : - जुबीन मेहता 23. सोंग्स ऑफ़ द गुरुज : खुशवंत सिंह 24. एस एम जी : देवेन्द्र प्रभु देसाई25. वैडिंग एलबम : गिरीश कर्नाड 26. इन द लाइन ऑफ़ फायर : परवेज मुशर्रफ़ 27. Amen-Autobiography of a Nun : सिस्टर जेस्मे 28. द 3 मिस्टेक्स ऑफ़ माई लाइफ : चेतन भगत 29. इंडियन बाई चोइस (Indian By Choice) : अमित दास गुप्ता 30. ड्रीम्स ऑफ़ रिवर्स एंड सीज : टिन पार्क्स
31. माई एलबम - प्रवीण महाजन32. द प्लेजर्स एंड सौरोस ऑफ़ वर्क - एलेन डी. बोटन 33. वार्स, गन्स एंड वोट्स : डेमोक्रेसी इन डैंजरस प्लेसेज - पॉल कोलियर34. गार्डिंग इंडियास इंटेग्रिटी : ए प्रोअक्टिवे गवर्नर स्पीक्स-लेफ्ट. जनरल (सेवानिवृत) एस.के.सिन्हा34. नरेन्द्र मोदी :द आकिर्टेक्ट ऑफ़ ए माडर्न स्टेट - एम.वी. कामथ व कालिंदी रंडेरी35. माधव राव सिंधिया : ए लाइफ - वीर सिंघवी व नमिता भंडारे 36. The Immortal : Amit Chaudhary37. The Associate : John Greeshm38. A Better India, A Better World : एन.आर. नारायनमूर्ती 39. Dreams from My Father : Barack Obama 40. The Audacity of Hope: Thoughts on Reclaiming the American Dreams - Barack Obama
कांग्रेस और औपनिवेशिक संघर्ष
एशिया में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले देशों के नेताओं को इस तथ्य का ज्ञान था कि उनका संघर्ष सभी उपनिवेशी देशों में आम संघर्ष का एक हिस्सा है। इसलिए उन्होंने एक दूसरे का समर्थन किया। सनयात सेन ने एक बार चीन में क्रांतिकारी संघर्ष के लिए एकत्र किए गए धन को फिलीपीन्स के क्रांतिकारियों को देने और चीन में विद्रोह कराने की योजना को स्थगित करने का प्रस्ताव किया था ताकि फिलीपीन्स की आजादी को और तेज किया जा सके। अन्य देशों में संघर्षशील उपनिवेशी जनता के प्रति एकता व्यक्त करने के मामले में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का रवैया अन्य देशों से कहीं ज्यादा स्पष्ट था। समान संघर्ष और एकता की यह भावना दादा भाई नौरोजी, बनर्जी, गोखले, तिलक, लाजपतराय और उस समय के अन्य नेताओं ने महसूस की थी। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में यह विचार हमारे विश्वास और नीति का अंग बन गया।
उपनिवेशवाद का कांग्रेस द्वारा विरोध
जैसे जैसे दिन गुजरते गए कांग्रेस औपनिवेशिक दासता वाले देशों की आजादी के संघर्ष को समर्थन देने के मामले में और ज्यादा मुखर होती गयी तथा साम्राज्यवादी और अन्य औपनिवेशिक देशों की और कड़े शब्दों में निन्दा करने लगी। राष्ट्रीय संघर्ष के उस अनूठे कदम को याद करने से किसी को भी गर्व की अनुभूति होगी जब ब्रिटिश शासन द्वारा बर्मा को भारत में मिलाने की कार्रवाई को कांग्रेस ने विस्तारवादी कार्रवाई कहा था और आजादी के लिए बर्मा के लोगों का समर्थन किया था। १९२१ में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास करके बर्मा के लोगों को अपनी आजादी के संघर्ष के लिये शुभकामनाएं दी थीं और घोषणा की थी कि कांग्रेस भारत के आजाद होने पर बर्मा को भारत से अलग रहने का समर्थन करेगी। गांधी जी ने यह कह कर भारत की स्थिति स्पष्ट कर दी कि बर्मा कभी भी भारत का अंग नहीं रहा - उसे कभी भी भारत का अंग नहीं बनाना चाहिए। बर्मा को हड़पने के कदम का प्रश्न ही नहीं लिया जा सकता। इसके काफी पहले राष्ट्रवादी नेतृत्व ने भारत की सीमाओं के विस्तार की ब्रिटिश नीति की निन्दा की थी और बड़ी संख्या में सेना और सैनिक खर्च से भारत को जकड़ने की कड़ी आलोचना की थी। १८७८-८० के दिनों में ही राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन द्वारा अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने का विरोध किया था और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसे एक ऐसा अन्याय बताया था जिससे इतिहास के पन्ने काले हुए हैं। १८९७ में कांग्रेस के अध्यक्ष जी. शंकरन नायर ने भारत के लिए शांतिपूर्ण नीति पर चलने की वकालत की ताकि भारत की सीमाओं के आसपास शांति का वातावरण रहे और भारत अपना आंतरिक विकास कर सके।
राष्ट्रवाद का समर्थन
इसी तरह राष्ट्रवादी नेताओं ने सैनिक अभियानों और साम्राज्यवादी विस्तार और एशिया साम्राज्यवादी युद्धों में भारतीय सैनिकों और साधनों के दुरुपयोग का भी विरोध किया। उन्होंने यह भी महसूस किया कि यह साम्राज्यवाद अवगुण है। १८८२ में ब्रिटेन 'कथित' भारत सरकार की साझेदारी के रूप में राष्ट्रवादी आन्दोलन के दमन के लिए मिस्र में सैना भेजी। राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे अनैतिक और आक्रमक कार्रवाई और कहा कि युद्ध का मतलब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों का पोषण करना है। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने आयरलैन्ड के राष्ट्रवादियों और मिस्र के राष्ट्रवादियों को संघर्ष से अपना समर्थन व्यक्तः किया। एक अन्य उदाहरण चीन के संघर्ष का है। चीन ब्रिटेन के प्रभुत्व वाली ताकतों का शिकार हो गया और प्रथम विश्व युद्ध के बाद जापानी साम्राज्य की मुट्ठी में चला गया। साथ ही यह देश युद्ध लोलुपों द्वारा विभिन्न सामा्रज्यवादी ताकतों की साठगांठ से शापग्रस्त हो कर युद्ध का अड्डा बन गया। चीन एशिया से एक ऐसा बीमार देश बन गया, जहां विदेशी ताकतों, विदेशी व्यावसायिक हितों, प्रतिक्रियावाद की आंतरिक ताकतों सामंती और सैनिक समयों को खुल कर खेलने का मौका मिल रहा रहा था। यहां की जनता दमन के नीचे घुट रही थी। सनसयात सेन के नेतृत्व में एक पुनर्गठित राष्ट्रवादी पार्टी ने साम्राज्यवाद और देश के भीतर के युद्ध लोलुपों के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया और चीन के एकीकरण और उसकी प्रभुसत्ता और प्रादेशिक अखंडता के लिए कैन्टन से १९२५ में एक अभियान शुरू किया। कांग्रेस ने इस राष्ट्रवादी संघर्ष को समर्थन दिया और चीन में भारतीय सेना के इस्तेमाल की कड़ी निन्दा की। गांधी जी ने चीन के छात्रों पर गोली चलाने और उनकी हत्या करने के लिए हत्या करने के लिए भारतीय सेना के इस्तेमाल की निन्दा की। उनकी यह निन्दा इस सचाई को उजागर करने के लिए थी कि भारत को केवल उसके खुद के शोषण के लिए गुलाम बना कर नहीं रखा गया है बल्कि चीन के महान और प्राचीन लोगों के शोषण में ग्रेट ब्रिटेन को सहयोग देने के लिए भी गुलाम रखा गया।"
खिलाफत आंदोलन और गांधीजी
भारत के मुसलमान उद्वेलित हो उठे। मुस्लिम लीग के नेता डाक्टर अंसारी ने मुस्लिम राज्यों की अखंडता और आजादी की मांग उठाई और कहा कि इस्लाम के पवित्र स्थानों सहित जजीरात-उस अरब को खलीफा को सौंप दिया जाए। १९१८ में कांग्रेस की स्वागत समिति के अध्यक्ष हकीम अजमल खान ने इसी तरह के विचार व्यक्त किए। गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को अपना पूर्ण समर्थन दिया और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन शुरू करने का फैसला किया। 'यंग इंडिया' पत्रिका में एक लेख में उन्होंने लिखा "मैं अपने साथ भारतीयों के संकट और दुख में भागीदार बनने के लिए बाध्य हूं। अगर मैं मुसलमानों को अपना भाई समझता और उनके हित को न्यायोचित मानता हूं तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ उनकी मदद करूं।" गांधीजी ने दुनिया भर के मुसलमानों और खासतौर से भारत के मुसलमानों की भावनाओं की उपेक्षा करने के लिए मोन्टेगू और ब्रिटिश शासन की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा, "मुझे यह जानकर आश्चर्य और निराशा हुई है कि साम्राज्य के वर्तमान प्रतिनिधि बेईमान और सिद्धांतहीन हैं। उन्हें भारत के लोगों की इच्छाओं के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं और वे भारत के सम्मान को कोई महत्व नहीं देते। मैं दुष्टों द्वारा संचालित सरकार के प्रति कोई प्रेमभाव नहीं दिखा सकता।" आजादी और मुक्ति के लिए कोई भी ऐसा आन्दोलन नहीं था जिसे कांग्रेस का समर्थन न मिला हो। सामा्रज्यवाद और फासिस्टवाद (अधिनायकवाद) की निन्दा करने में जवाहर लाल नेहरू सबसे आगे थे। स्पेन से इथियोपिया तक उन्होंने दबे हुए राष्ट्रों के प्रति कांग्रेस का समर्थन व्यक्त किया। जैसा कि १९३६ में उन्होंने कहा - "हमारे संघर्ष की सीमाएं, अपने देश तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि चीन और स्पेन तक फैली हैं।" वास्तव में जवाहरलाल नेहरू व्यक्तिगत और शारीरिक रूप से स्पेन में फासिस्टवाद के विरुद्ध संघर्ष में भाग लेना चाहते थे लेकिन भारत में आजादी के लिए संघर्ष की मांग के कारण ऐसा नहीं कर सके।
अधिनायकवाद का विरोध
१९३६ में मुसोलिनी के नेतृत्व में फासिस्ट इटली ने इथियोपिया (तब का अबीसीनिया) के विरुद्ध जब हमला किया तो कांग्रेस ने इथियोपिया की जनता के प्रति समर्थन किया। कांग्रेस ने इथियोपिया दिवस मनाया और साम्राज्यवाद और फासिस्टवाद के विरुद्ध जनमत जागृति किया। जवाहरलाल नेहरू यूरोप गए थे और लौटते समय जब उनका विमान रोम में उतरा तो मुसोलिनी ने उनसे भेंट करने की इच्छा व्यक्त की लेकिन जवाहरलाल नेहरू ऐसे तानाशाह से बात नहीं करना चाहते थे जिसने इथियोपिया की जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था। इसी तरह चीन पर जापान के आक्रमण पर कांग्रेस ने रोष व्यक्त किया और ठोस कदमों के साथ चीन की जनता का समर्थन किया। कांग्रेस ने देश भर में जापानी माल के बहिष्कार का आयोजन किया और चीनी जनता के संघर्ष के समर्थन में जापानी साम्राज्यवादियों के खिलाफ सभाएं और प्रदर्शन किए। बाद में कांग्रेस ने अपने सांकेतिक समर्थन के रूप में एक चिकित्सा दल चीन भेजा। इस प्रकार कांग्रेस औपनिवेशिक दासता की त्रासदी भोग रहे देशों की जनता के संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी रही।
उपनिवेशवाद-विरोधी (प्रवक्ता श्री नेहरू )
जवाहरलाल नेहरू ने इस जागृति की प्रक्रिया और विदेशी दासता की जकड़े लोगों के प्रति एक की भावना को और तेज किया। वास्तव में जवाहरलाल औपनिवेशिक लोगों के संघर्ष की चेतना बन गए। यह एक सच्चाई है कि जवाहरलाल नेहरू ने फरवरी १९२७ में ब्रसेल्स में औपनिवेशिक दमन और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से भाग लिया था। इसके बाद ही कांग्रेस साम्राज्यवाद के विरुद्ध और राष्ट्रीय आजादी के लिए गठित लीग का सह सदस्य बन गयी। जवाहरलाल नेहरू, अल्बर्ट आइन्सटाइना मदाम सनपात सेन, रोमैं रोलां तथा विश्व के अन्य नेताओं के साथ ब्रसेल्स सम्मेलन के अध्यक्षों में से अध्यक्ष चुने गए और बाद में लीग की कार्यकारिणी के सदस्य बने। जवाहलाल नेहरू ने अपने भाषण में साम्राज्यवाद को पूंजीवाद का विकसित रूप बताया और उपनिवेश की दासता में जकड़े देशों के लिए समान संघर्ष और एक दूसरे को मदद देने की आवश्यकता पर बल दिया। खिलाफ आन्दोलन नाम से विख्यात तुर्की के मुसलमानों के संघर्ष समर्थन में १९२० में गांधी जी ने जो आन्दोलन चलाया उसे कौन भुला सकता है। यह वह समय भी था जब कांग्रेस राजनीतिक लोगों के सम्मेलन की वार्षिक जमात का चोला उतार कर न सिर्फ भारतीय मांगों का झरोखा बन गयी बल्कि राष्ट्रीय नीतियों को निश्चित करने और उसको लागू करने का एक संगठन बनी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का जनसंख्या के आधार पर पुनर्गठन किया गया। भारतीय आधार पर प्रांतीय कमेटियां बनाई गयीं और कांग्रेस कार्यसमिति का गठन हुआ।